Tutor Marked Assignments Secondary Course Hindi (201) 2019–2020
Tutor Marked Assignments
Secondary Course
Hindi (201)
2019–2020
आपने कबीर के दोहे पढ़े। इन दोहो में से आपको कोन सा दोहा आज के सदर्भ में सर्वाधिक प्रासंगिक लगा और क्यों ?
हमने कबीर दास जी के कई दोहे पड़े हैं, इनमें से जो दोहा मुझे आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक लगा वो इस प्रकार हैं ...
दोहा ...
बुरा जो देखन मैं गया, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा ना होय ।।
अर्थ - कबीर दास जी कहते हैं, मैं तो दूसरों में ही बुराइयां देखता हूं। मैंने अपने अंदर की बुराई को नहीं देखा। जब मैंने अपने मन में झांका तो मैंने पाया कि मुझसे बुरा तो इस संसार में कोई है ही नहीं। मैं ही बुरा हूँ इसी कारण लोग मुझे बुरे दिखते हैं। जब मैं अपना मन साफ कर लूंगा तो फिर मुझे कोई भी बुरा नहीं है।
मुझे यह दोहा आज के संदर्भ में प्रासंगिक इसलिए लगा क्योंकि आज हम जिधर देखते हैं, लोग एक दूसरे की बुराई करते रहते हैं अपनी कमियों को छुपा कर दूसरों की निंदा में लगे रहते हैं। मेरी राय में ये दोहा आज के समय के संदर्भ में ही हर समय के संदर्भ में प्रासंगिक रहेंगे।
==============================================
'अंधेर नगरी ' का मूल्य उद्देश्य क्या है ? आपने पाठ से क्या शिक्षा ग्रहण की
पाठ का उद्देश्य ऐसे शासक का चरित्र - वर्णन करना है जो शक्ति के नशे में चूर हैं और जिसकी वजह से देश ऐसे हालात में पहुंचा हुआ है कि लगता है कि क्या शासक यहां रहता है ? सच बोलने वालों को सजा मिलती है और झूठे पदवी पाते हैं, छली और कपटी लोगों की एकता के जोर के आगे कोई नहीं टिक पाता, अंदर से कलुषता से भरे लोग बाहर से अच्छे दिखते रहते हैं, या दिखने की कोशिश में रहते हैं |
धर्म और अधर्म सब एक हो गया है, न्याय वही जो राजा कहे | गधे और घोड़े सभी एक ही दृष्टि से देखे जाते हैं । दरबार में मूर्खों का जमावड़ा है, मूर्ख और जनविरोधी एक तरफ हो गए हैं और बुद्धिमानों को उन्होंने खिलाफ मान लिया है | किसी और के गुनाह की सजा किसी और को दिलाने वाले मंत्री भरे पड़े हैं |
पाठ से हमें शिक्षा मिलती है कि राजा को या शासक को बुद्धिमान होना चाहिये अपने मंत्री या अन्य निकट के व्यक्तियों से चापलूसी से बचना चाहिए । अपनी बुद्धि तथा विवेक से काम लेना चाहिए अन्यथा उसकी तथा उसके राज्य की दुर्गति होना सुनिश्चित है ।बुद्धिमान और मूर्ख में अंतर होता है | व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुसार हक तथा मान - सम्मान मिलना चाहिए |
=======================================================
आपने बूढी पृथ्वी का दुःख पाठ पढ़ा। पृथ्वी का दुःख दूर करने में आप क्या योग दान देंगे
पृथ्वी की पुरानी व्यथा कविता को पढ़कर, क्या आपको पृथ्वी के दुख के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, पृथ्वी के दुख से छुटकारा पाने के लिए, हमें पृथ्वी का ध्यान रखना चाहिए और इसे साफ रखना चाहिए।
हमें बड़ी मात्रा में पेड़ लगाने चाहिए। पेड़ों की छंटाई नहीं करनी चाहिए। हमें पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करना चाहिए। हमें पानी का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
हमें पृथ्वी को प्रदूषित नहीं करना चाहिए। पृथ्वी एकमात्र ऐसा ग्रह है जिसमें पानी है और जो मनुष्यों द्वारा बसा हुआ है। पृथ्वी ने हमें सब कुछ दिया है, यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी पृथ्वी को प्रदूषित न करें और हमें अपने लाभ के लिए पृथ्वी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। पृथ्वी ने हमें जीवन दिया है, इस वजह से हम अपना जीवन अच्छे से व्यतीत कर रहे हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम इसकी अच्छी देखभाल करें और नियमों के साथ काम करें।
==================================================
आपने 'उनको प्रणाम' कविता पढ़ी। किसी प्रासंगिक घटना का उदाहरण देकर इस कविता का मूल्य संदेश व्यक्त करें।
“उनको प्रणाम” कविता कवि ‘नागार्जुन’ द्वारा लिखी गई कविता है। इस कविता का मूल भाव आदर और सम्मान है। कर्मठ, मेहनती और प्रयत्नशील लोगों के लिये आदर सम्मान प्रकट करना है।
कवि ने यह कविता ऐसे लोगों के लिए समर्पित की है जिन्होंने साधनहीन और सुविधाहीन होते हुए भी बड़े बड़े लक्ष्यों को पाने के लिए अपना तन-मन-धन सब कुछ लगा दिया। जीवन में बहुत से ऐसे लोग होते हैं, जिन्होंने अपने भरपूर साहस और हौसले के साथ अथक प्रयास और संघर्ष किए थे, लेकिन किसी कारणवश वह अपने लक्ष्य को पा नहीं सके। पर ऐसे लोग प्रणाम करने योग्य हैं कि कम से कम उन्होंने प्रयास तो किया।
ऐसे लोग भी हुए हैं जो बेहद ईमानदार, मेहनती और कर्मशील थे और सदैव उत्साह से भर कर जीवन पर्यंत काम करते रहे और यह आवश्यक भी नहीं की हर कोई जन सुविधा संपन्न या धनवान ही हो। बहुत सारे लोग इस संसार में ऐसे भी होते हैं जिन्हें छोटी-छोटी सुविधा भी नहीं मिल पाती थी।
अभावों में रहते हुए भी ऐसे लोग किसी से शिकायत नहीं करते। किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते बल्कि अपने लक्ष्य को पाने के लिए निरंतर गतिशील रहते हैं और लोग अपनी संघर्ष और ईमानदारी से अपने लक्ष्य को पा ही लेते हैं। कुछ कारणों में हो सकता है वह अपने हमेशा सफल नहीं हो पाते लेकिन उनकी जिजीविषा और उनकी इच्छा शक्ति प्रणान करने करने योग्य है।
कवि ऐसे लोगों को प्रणाम करता है, जो हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। कवि ने यह कविता भारत के स्वाधीनता संग्राम में लगे देशभक्तों को भी समर्पित की है, जिन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी और खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर भी झूल गए। वे आजादी रूपी लक्ष्य को पाने से पहले ही इस संसार से विदा हो गए।
कवि कभी ना हार मानने वाले लोगों के लिए यह कविता समर्पित करता है, और उनको प्रणाम करता है।
संदेश:
हमें जीवन में हमेशा मेहनत , ईमानदारी का रास्ता अपनाना चाहिए |
कवि ने यह कविता ऐसे लोगों के लिए समर्पित की है जिन्होंने साधनहीन और सुविधाहीन होते हुए भी बड़े बड़े लक्ष्यों को पाने के लिए अपना तन-मन-धन सब कुछ लगा दिया। जीवन में बहुत से ऐसे लोग होते हैं, जिन्होंने अपने भरपूर साहस और हौसले के साथ अथक प्रयास और संघर्ष किए थे, लेकिन किसी कारणवश वह अपने लक्ष्य को पा नहीं सके। पर ऐसे लोग प्रणाम करने योग्य हैं कि कम से कम उन्होंने प्रयास तो किया।
ऐसे लोग भी हुए हैं जो बेहद ईमानदार, मेहनती और कर्मशील थे और सदैव उत्साह से भर कर जीवन पर्यंत काम करते रहे और यह आवश्यक भी नहीं की हर कोई जन सुविधा संपन्न या धनवान ही हो। बहुत सारे लोग इस संसार में ऐसे भी होते हैं जिन्हें छोटी-छोटी सुविधा भी नहीं मिल पाती थी।
अभावों में रहते हुए भी ऐसे लोग किसी से शिकायत नहीं करते। किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते बल्कि अपने लक्ष्य को पाने के लिए निरंतर गतिशील रहते हैं और लोग अपनी संघर्ष और ईमानदारी से अपने लक्ष्य को पा ही लेते हैं। कुछ कारणों में हो सकता है वह अपने हमेशा सफल नहीं हो पाते लेकिन उनकी जिजीविषा और उनकी इच्छा शक्ति प्रणान करने करने योग्य है।
कवि ऐसे लोगों को प्रणाम करता है, जो हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। कवि ने यह कविता भारत के स्वाधीनता संग्राम में लगे देशभक्तों को भी समर्पित की है, जिन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी और खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर भी झूल गए। वे आजादी रूपी लक्ष्य को पाने से पहले ही इस संसार से विदा हो गए।
कवि कभी ना हार मानने वाले लोगों के लिए यह कविता समर्पित करता है, और उनको प्रणाम करता है।
संदेश:
हमें जीवन में हमेशा मेहनत , ईमानदारी का रास्ता अपनाना चाहिए |
===========================================================
' शतरंज के खिलाडी ' पाठ की भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
इस कहानी में प्रेमचंद ने वाजिदअली शाह के वक्त के लखनऊ को चित्रित किया है। भोग-विलास में डूबा हुआ यह शहर राजनीतिक-सामाजिक चेतना से शून्य है। पूरा समाज इस भोग-लिप्सा में शामिल है। इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं - मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली। दोनों वाजिदअली शाह के जागीरदार हैं। जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। दोनों गहरे मित्र हैं और शतरंज खेलना उनका मुख्य काराबेर है। दोनों की बेगमें हैं, नौकर-चाकर हैं, समय से नाश्ता-खाना, पान-तम्बाकू आदि उपलब्ध होता रहता है।
एक दिन की घटना है- मिरजा सज्जाद अली की बीवी बीमार हो जाती हैं। वह बार-बार नौकर को भेजती हैं कि मिरज़ा हकीम के यहाँ से कोई दवा लायें, कितु मिरज़ा तो शतरंज में डूबे हुए हैं। हर घड़ी उन्हें लगता है कि बस अगली बाजी उनकी है। अंत में तंग आकर मिरज़ा की बेगम उन दोनों को खरी-खोटी सुनाती हैं। खेल का सारा ताम-झाम ड्योढी के बाहर फेंक देती है। नतीजा यह निकलता है कि शतरंज की बाजी अब मिरज़ा के यहाँ से उठकर मीर के दरवाजे जा बैठती है।
मीर साहब की बीवी शुरू में तो कुछ नहीं कहतीं लेकिन जब बात हद से आगे बढ़ने लगती है तब इन दोनों खिलाड़ियों को मात देने के लिए वह एक नायाब तरकीब निकालती है। जैसा कि हमेशा होता था, दोनों मित्र शतरंज की बाजियों में खोये हुए थे कि उसी समय बादशाही फौज का एक अप़फसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ खड़ा होता है। उसे देखते ही मीर साहब के होश उड़ गये। वह शाही अफसर मीर साहब के नौकरों पर खूब रोब ग़ालिब करता है और मीर के न होने की बात सुनकर अगले दिन आने की बात करता है। इस प्रकार यह तमाशा खत्म होता है। दोनों मित्र चिन्तित हैं, इसका क्या समाधान निकाला जाय।
मीर और मिरज़ा भी छोटे खिलाड़ी नहीं थे। उन्होंने भी गज़ब की तोड़ निकाली। दोनों मित्रों ने एक बार पुनः स्थान-परिवर्तन करके ही अपना अगला पड़ाव माना। न होंगे, न मुलाकात होगी। इधर बेगम आज़ाद हुई उधर मीर बेपरवाह। नया स्थान था शहर से दूर, गोमती के किनारे एक विरान मस्ज़िद। वहाँ लोगों का आना-जाना बिल्कुल नहीं था। साथ में जरूरी सामान, जैसे हुक्का, चिलम दरी आदि ले लिये। कुछ दिनों ऐसा ही चलता रहा। एक दिन अचानक मीर साहब ने देखा कि अंग्रेजी फौज गोमती के किनारे-किनारे चली आ रही है। उन्होंने मिरज़ा से हड़बड़ी में यह बात बताई। मिरज़ा ने कहा - तुम अपनी चाल बचाओ। अंग्रेज आ रहे हैं आने दो। मीर ने कहा साथ में तोपखाना भी है। मिरज़ा साहब ने कहा- यह चकमा किसी और को देना। इस प्रकार पुनः दोनों खेल में गुम हो गए।
कुछ समय में नवाब वाजिद अली शाह कैद कर लिए गए। उसी रास्ते अंग्रेजी सेना विजयी-भाव से लौट रही थी। पूरा शहर बेशर्मी के साथ तमाशा देख रहा था। अवध का इतना बड़ा नवाब चुपचाप सर झुकाए चला जा रहा था। मीर और रौशन दोनों इस नवाब के जागीरदार थे। नवाब की रक्षा में इन्हें अपनी जान की बाजी लगा देनी चाहिए। परंतु दुर्भाग्य कि जान की बाजी तो इन्होंने लगाई ज़रूर पर शतरंज की बाजी पर। थोड़ी ही देर बाद खेल की बाजी में ये दोनों मित्र उलझ पड़े। बात खानदान और रईसी तक आ पहुँची। गाली-गलौज होने लगी। दोनों कटार और तलवार रखते थे। दोनों ने तलवारें निकालीं और एक दूसरे को दे मारीं। दोनों का अंत हो गया। काश! यह मौत नवाब वाजिदअली के पक्ष में और ब्रिटिश सेना के प्रतिपक्ष में हुई होती! लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
एक दिन की घटना है- मिरजा सज्जाद अली की बीवी बीमार हो जाती हैं। वह बार-बार नौकर को भेजती हैं कि मिरज़ा हकीम के यहाँ से कोई दवा लायें, कितु मिरज़ा तो शतरंज में डूबे हुए हैं। हर घड़ी उन्हें लगता है कि बस अगली बाजी उनकी है। अंत में तंग आकर मिरज़ा की बेगम उन दोनों को खरी-खोटी सुनाती हैं। खेल का सारा ताम-झाम ड्योढी के बाहर फेंक देती है। नतीजा यह निकलता है कि शतरंज की बाजी अब मिरज़ा के यहाँ से उठकर मीर के दरवाजे जा बैठती है।
मीर साहब की बीवी शुरू में तो कुछ नहीं कहतीं लेकिन जब बात हद से आगे बढ़ने लगती है तब इन दोनों खिलाड़ियों को मात देने के लिए वह एक नायाब तरकीब निकालती है। जैसा कि हमेशा होता था, दोनों मित्र शतरंज की बाजियों में खोये हुए थे कि उसी समय बादशाही फौज का एक अप़फसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ खड़ा होता है। उसे देखते ही मीर साहब के होश उड़ गये। वह शाही अफसर मीर साहब के नौकरों पर खूब रोब ग़ालिब करता है और मीर के न होने की बात सुनकर अगले दिन आने की बात करता है। इस प्रकार यह तमाशा खत्म होता है। दोनों मित्र चिन्तित हैं, इसका क्या समाधान निकाला जाय।
मीर और मिरज़ा भी छोटे खिलाड़ी नहीं थे। उन्होंने भी गज़ब की तोड़ निकाली। दोनों मित्रों ने एक बार पुनः स्थान-परिवर्तन करके ही अपना अगला पड़ाव माना। न होंगे, न मुलाकात होगी। इधर बेगम आज़ाद हुई उधर मीर बेपरवाह। नया स्थान था शहर से दूर, गोमती के किनारे एक विरान मस्ज़िद। वहाँ लोगों का आना-जाना बिल्कुल नहीं था। साथ में जरूरी सामान, जैसे हुक्का, चिलम दरी आदि ले लिये। कुछ दिनों ऐसा ही चलता रहा। एक दिन अचानक मीर साहब ने देखा कि अंग्रेजी फौज गोमती के किनारे-किनारे चली आ रही है। उन्होंने मिरज़ा से हड़बड़ी में यह बात बताई। मिरज़ा ने कहा - तुम अपनी चाल बचाओ। अंग्रेज आ रहे हैं आने दो। मीर ने कहा साथ में तोपखाना भी है। मिरज़ा साहब ने कहा- यह चकमा किसी और को देना। इस प्रकार पुनः दोनों खेल में गुम हो गए।
कुछ समय में नवाब वाजिद अली शाह कैद कर लिए गए। उसी रास्ते अंग्रेजी सेना विजयी-भाव से लौट रही थी। पूरा शहर बेशर्मी के साथ तमाशा देख रहा था। अवध का इतना बड़ा नवाब चुपचाप सर झुकाए चला जा रहा था। मीर और रौशन दोनों इस नवाब के जागीरदार थे। नवाब की रक्षा में इन्हें अपनी जान की बाजी लगा देनी चाहिए। परंतु दुर्भाग्य कि जान की बाजी तो इन्होंने लगाई ज़रूर पर शतरंज की बाजी पर। थोड़ी ही देर बाद खेल की बाजी में ये दोनों मित्र उलझ पड़े। बात खानदान और रईसी तक आ पहुँची। गाली-गलौज होने लगी। दोनों कटार और तलवार रखते थे। दोनों ने तलवारें निकालीं और एक दूसरे को दे मारीं। दोनों का अंत हो गया। काश! यह मौत नवाब वाजिदअली के पक्ष में और ब्रिटिश सेना के प्रतिपक्ष में हुई होती! लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
=================================================
No comments: